क्या महाशिवरात्रि को नहीं हुआ था शिव पार्वती का विवाह ? जानिए क्या है इस दिन का महत्व।

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भारतीय आस्तिक दर्शनों में न्याय दर्शन प्रथम क्रम पर है। न्याय दर्शन में सही ज्ञान को ‘प्रमा’ और मिथ्या ज्ञान को ‘अप्रमा’ कहा गया है। ‘प्रमाण’ को यथार्थ ज्ञान का साधन कहा जाता है। न्याय दर्शन में हमें प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमान और अर्थापत्ति प्रमाण मिलते हैं। इनमें शब्द प्रमाण का अर्थ होता है जो ज्ञान हमें वेद, उपनिषद, पुराण, ऋषियों और धर्म शास्त्रों से मिलता है, वह शब्द प्रमाण की श्रेणी में आता है। सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमें शास्त्र अध्ययन करने की अत्यंत आवश्यकता है। महाशिवरात्रि के अवसर पर भगवान शिव और माता पार्वती के चरणों में नमन करते हुए हम शिव महापुराण के रुद्र संहिता में वर्णित श्लोकों के उद्धरण के माध्यम से समझने का प्रयास करते हैं कि शिवजी की विवाह की तिथि क्या बतायी गयी है?
शिव महापुराण के रुद्र संहिता के सती खण्ड के 18 वें अध्याय के 20वें श्लोक में वर्णित है,
“अथ चैत्रसिते पक्षे नक्षत्रे भगदैवते। त्रयोदश्यां दिने भानौ निर्गच्छत्स महेश्वरः ॥
जिसका अर्थ हुआ “तदनन्तर चैत्र शुक्लपक्ष त्रयोदशी में रविवार को पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्र में उन महेशवर ने [विवाहके लिये] यात्रा की॥” अर्थात इससे स्पष्ट होता है कि इस तिथि को शिव जी का विवाह माता सती के साथ हुआ था।
शिव महापुराण के रुद्र संहिता के ही पार्वती खण्ड के 35वें अध्याय के 58वें से 61वें श्लोकों में वर्णित है,
“सप्ताहे समतीते तु दुर्लभेऽतिशुभे क्षणे। लग्नाधिपे च लग्नस्थे चन्द्रे स्वतनयान्विते॥ 58
मुदिते रोहिणीयुक्ते विशुद्धे चन्द्रतारके। मार्गमासे चन्द्रवारे सर्वदोषविवर्जिते॥ 59
सर्वसदग्रहसंसृष्टेऽसदग्रहृष्टरिवर्जिते । सदपत्यप्रदे जीवे पतिसोभाग्यदायिनि॥ 60
जगदम्बां जगत्पित्रे मूलप्रकृतिमीश्वरीम्‌। कन्यां प्रदाय गिरिजां कृती त्वं भव पर्वत ॥ 61”
जिसका अर्थ हुआ “एक सप्ताह बीतने पर एक दुर्लभ उत्तम शुभयोग आ रहा है। उस लग्न में लग्न का स्वामी स्वयं अपने घर में स्थित है और चन्द्रमा भी अपने पुत्र बुध के साथ स्थित रहेगा | चन्द्रमा रोहिणी युक्त होगा, इसलिये चंद्र तथा तारागणों का योग भी उत्तम है । मार्गशीर्ष का महीना है, उसमें भी सर्वदोष विवर्जित चन्द्रवार का दिन है, वह लग्न सभी उत्तम ग्रहों से युक्त तथा नीच ग्रहों की दृष्टि रहित है। उस शुभ लग्न में बृहस्पति उत्तम सन्तान तथा पति का सौभाग्य प्रदान करने वाले हैं ॥ 58-60॥ हे पर्वतराज! [ऐसे शुभ लग्नमें] अपनी कन्या मूल प्रकृति रूपा ईश्वरी जगदम्बा को जगत्पिता शिवजी के लिये प्रदान करके आप कृतार्थ हो जायँगे॥ 61॥
इन श्लोकों को पढने से भी स्पष्ट हो रहा है कि मार्गशीर्ष माह में शिव जी का विवाह माता पार्वती के साथ हुआ था।
यह तो ज्ञात हो गया कि शिवरात्रि को शिव जी का विवाह नहीं हुआ था तो फिर शिवरात्रि को क्या हुआ था? तो यह प्रसंग शिव महापुराण के विद्येश्वर संहिता के षष्ठम अध्याय से नवम अध्याय में प्राप्त होता है जिसमें शिवरात्रि को शिवजी अग्नि स्तंभ या ज्योतिर्मय लिंग के रूप में विष्णु जी और ब्रह्मा जी के मध्य प्रकट हुए थे, जब वे दोनों इस बात को लेकर युद्ध कर रहे थे कि दोनों में से श्रेष्ठ कौन है? फिर दोनों ने शिव जी को परब्रह्म स्वीकार कर उनका पूजन किया । पूजन से प्रसन्न होकर शिव जी ने कहा- इस तिथि को मेरा प्राकट्योत्सव होना चाहिये।
शिव महापुराण के विद्येश्वर संहिता के 9वें अध्याय के 9वें, 10वें और 14वें श्लोकों में वर्णित है,
“तुष्टोऽहमद्य वां वत्सौ पूजयास्मिन्‌ महादिने॥
दिनमेतत्ततः पुण्यं भविष्यति महत्तरम्‌। शिवरात्रिरिति ख्याता तिथिरेषा मम प्रिया॥ ”
हे पुत्रो! आज का दिन महान्‌ है। इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगों पर बहुत प्रसन्न हूँ । इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान्‌-से-महान्‌ होगा। आज की यह तिथि शिवरात्रि के नाम से विख्यात होकर मेरे लिये परम प्रिय होगी ॥ 9-10॥
“मद्धर्मवृद्धिकालोऽयं चन्द्रकाल इवाम्बुधेः। प्रतिष्ठाद्युत्सवो यत्र मामको मङ्गलायनः॥ ”
अर्थात जैसे पूर्ण चन्द्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर है, उसी प्रकार यह शिवरात्रि तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय है । इस तिथि में मेरी स्थापना आदि का मंगलमय उत्सव होना चाहिये॥ 14
अतः आप सभी से निवेदन है कि महाशिवरात्रि का पर्व शिवलिंग के प्राकट्योत्सव के रूप में मनाया जाना चाहिए न कि विवाहोत्सव के रूप में ।

 

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Author: SinghamTimes

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