सर्वप्रथम मैं आयु और अध्ययन में इतना सुविज्ञ नहीं हुआ हूँ कि किसी कवि, विद्वान और समीक्षक को चुनौती देकर यह कह सकुँ कि वाल्मिकी रामायण का उत्तरकाण्ड वाल्मीकि जी की रचना नहीं है, फिर भी वाल्मीकि रामायण में ही वर्णित श्लोकों के माध्यम से उत्तरकाण्ड की सत्यता समझने का प्रयास करते है। जब हम उत्तरकाण्ड की बात करते हैं तो दो प्रसंग की ओर हम विशेष रूप से आकर्षित होते है। एक तो शम्बूक वध और दूसरा सीता परित्याग परंतु इसके पहले हमारे मन में एक प्रश्न आता है कि क्या वास्तव में वाल्मीकि जी ने उत्तरकाण्ड की रचना की थी ? उत्तरकाण्ड का यदि शाब्दिक अर्थ लें तो यहाँ रामायण के संदर्भ में उत्तर का तात्पर्य किसी प्रश्न के उत्तर से नहीं है, अपितु उत्तर अर्थात “पीछे का”, तो नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि उत्तरकाण्ड बाद में जोड़ा गया है।
हमें जो पुस्तकें उपलब्ध है, उसमें है उत्तरकाण्ड, फिर चाहे वह गीता प्रेस गोरखपुर की पुस्तक हो या वाल्मीकि रामायण का बड़ौदा का समीक्षात्मक संस्करण लेकिन जब हम वाल्मीकि रामायण का प्रारंभ से अध्ययन करते चलेंगे तो हमें बालकाण्ड से युद्धकाण्ड तक कुछ कुछ श्लोक पढ़ने में आएंगे जिन्हें पढ़कर हम तुरंत ही समझ जायेंगे कि ये प्रक्षिप्त है परन्तु उत्तरकाण्ड की भाषा पढ़ते ही समझ में आ जायेगा कि यहाँ कुछ गड़बड़ है, यह प्रक्षिप्त है या यूं कहें कि बाद में जोड़ा गया है क्योंकि यह वाल्मीकि जी की भाषा शैली है ही नहीं। वाल्मीकि जी ने इतिहास लिखा है इतिहास का अर्थ होता है “पूर्ववृत्तम अर्थात ऐसा ही हुआ था” और अनेक विद्वानों का मानना है कि समय के साथ रामायण के कलेवर में विस्तार हुआ है। अब कुछ उदाहरणों के माध्यम से समझते है कि कैसे उत्तरकाण्ड परवर्ती कवि की रचना है।
1) युद्धकाण्ड के एक सौ अट्ठाईसवें सर्ग के एक सौ ग्यारहवें श्लोक में वर्णित है कि “श्रुत्वा रामायणमिदं” जिसका अर्थ हुआ “इस सम्पूर्ण रामायण को सुनकर”, जिससे समझ में आ रहा है कि पूरी राम कथा युद्धकाण्ड पर ही समाप्त हो गई है, इसके बाद अब कुछ और नहीं है।
2) युद्धकाण्ड के एक सौ अट्ठाईसवें सर्ग में राज्याभिषेक के बाद यह वर्णन मिलता है कि अयोध्या में सभी लोग सदा प्रसन्न रहते थे। भाइयों सहित श्री राम जी ने ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य किया था और फिर फलश्रुति के साथ राम कथा समाप्त हो जाती है। इससे भी यही समझ में आ रहा है कि वाल्मीकि जी की रचना युद्धकाण्ड पर समाप्त हो जाती है।
3) युद्धकाण्ड के एक सौ पच्चीसवें सर्ग में श्री राम जी हनुमान जी को शीघ्र अयोध्या जाकर राजभवन में सबके सकुशल होने का पता लगाने के लिए कहते है और भरत को रावण द्वारा सीता के अपहरण से लेकर रावण वध के पश्चात पिता जी के दर्शन होने तक का वृतांत सुनाने को कहते है, परन्तु उत्तरकाण्ड के अड़तीसवें सर्ग के पच्चीसवें और छब्बीसवें श्लोक के पठन से यह ज्ञात होता है,
“भवन्तश्च समानीता भरतेन महात्मना।।
श्रुत्वा जनक राजस्य काननात् तनयां हृताम्।“
“उद्युक्तानां च सर्वेषां पार्थिवानां महात्मनाम्।।
कालोप्यऽतीतः सुमहान् गमनं रोचयाम्यतः।“
कि श्री राम जी समस्त राजाओं को विदा करते हुए कहते है कि भरत ने आप सब को सीता अपहरण का समाचार सुनकर राक्षसों पर आक्रमण करने के लिए अयोध्या बुलाया था। यहाँ कोई मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी समझ जायेगा कि जब भरत को युद्धकाण्ड के एक सौ पच्चीसवें सर्ग में युद्ध के बाद पता चला कि सीता का अपहरण हुआ था तो फिर वे युद्ध करने के लिए राजाओं को कैसे बुला सकते है। यह वृत्तांत अपने आप में पर्याप्त है यह प्रमाणित करने के लिए कि उत्तरकाण्ड प्रक्षिप्त है।
4) बालकाण्ड के प्रथम सर्ग के दुसरे श्लोक से पाँचवे श्लोक में वाल्मीकि जी नारद जी से पूछते हैं कि,
”को न्वस्मिन् साम्प्रतं लोके गुणवान् कश्च वीर्यवान् |
धर्मज्ञश्च कृतज्ञश्च सत्यवाक्यो दृढव्रतः ||” 1-1-2”
“एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे |
महर्षे त्वं समर्थोऽसि ज्ञातुमेवंविधं नरम् ||” 1-1-5”
इस संसार में ऐसा कौन सा पुरुष है जो गुणवान है, धर्मज्ञ है, सत्यवक्ता है, दृढ़ प्रतिज्ञ है, समस्त प्राणियों का हित चाहने वाला है और विद्वान है परन्तु उत्तरकाण्ड के एक सौ दसवें सर्ग के आठवें श्लोक में,
“ततः पितामहो वाणीं त्वंतरिक्षादभाषत ।
आगच्छ विष्णो भद्रं ते दिष्ट्या प्राप्तोऽसि राघव || 7-110-8”
श्रीराम जी को विष्णुस्वरुप बताया गया है। वाल्मीकि जी द्वारा श्री राम जी का मानव रूप में ही वर्णन किया है, परन्तु उत्तरकाण्ड में अवतारवाद के वर्णन से यह प्रमाणित होता है कि उत्तरकाण्ड प्रक्षिप्त है या वाल्मीकि जी की रचना नहीं है।
5) यदि हम वाल्मीकि रामायण का प्रारंभ से विधिवत अध्ययन करते चलेंगे तो हमें प्रत्येक काण्ड में वाल्मीकि जी के उत्कृष्ट कवित्व की झलक मिलेगी फिर चाहे वह अयोध्या का वर्णन हो, पंपा सरोवर का वर्णन हो या लंका का वर्णन हो परंतु उत्तरकाण्ड में वर्णित काव्य पहले की अपेक्षा निम्न स्तर का है।
6) युद्धकाण्ड के एक सौ अट्ठाईसवें सर्ग के नवासी और नब्बे श्लोक में वर्णित है कि,
“सुग्रीवो वानरश्रेष्ठो दृष्ट्वा रामाभिषेचनम्।
पूजितश्चेव रामेण किष्किंधा प्राविशत् पुरीम्।।“ 6-128-89
“विभिषणोऽपि धर्मात्मा सह तैनैर्ऋतर्षभै:।
लब्ध्वा कुलधनं राजा लङ्कां प्रयान्महायशा:।।“ 6-128-90
सुग्रीव श्री राम का राज्याभिषेकोत्सव देखकर किष्किंधापुरी चले गए और धर्मात्मा विभीषण भी अपना राज्य पाकर अपने साथी निशाचरों के साथ लंकापुरी चले गए। परन्तु उत्तरकाण्ड के चालीसवें सर्ग के अट्ठाईसवें श्लोक में वर्णित है कि,
“सुग्रीवः स च रामेण निरंतर मुरोगतः
विभीषणश्च धर्मात्मा सर्वे ते बाष्पविक्ल्वा: ।।“ 7-40-28
सुग्रीव और धर्मात्मा विभीषण श्री राम के हृदय से लग गये और उनका गाढ़ आलिंगन करके विदा हुए।
यदि उत्तरकाण्ड की रचना भी वाल्मीकि जी ने की होती तो वे सुग्रीव और विभीषण की विदाई का पुनः उल्लेख नहीं
करते । अतः मेरे विचार से उत्तरकाण्ड वाल्मीकि जी की नहीं वरन् परवर्ती कवि की रचना है ।
अब चर्चा करते हैं श्री राम द्वारा माता सीता के परित्याग की :-
- प्रक्षिप्त उत्तरकाण्ड के पैंतालीसवे सर्ग के चौदहवे श्लोक में श्री राम जी लक्ष्मण से कहते हैं कि,
“अप्यहं जीवितं जह्याम युष्मान् वा पुरुषर्षभाः।।
अपवादभयाद् भीतः किं पुनर्जनकात्मजाम्।“
लोकानिन्दा के भय से मैं अपने प्राणों को और तुम सब को भी त्याग सकता हूँ फिर सीता को त्यागना कौन सी बड़ी बात है?
अब ध्यान दीजिए कि बालकाण्ड के प्रथम सर्ग के सत्रहवे श्लोक में,
“समुद्र इव गाम्भीर्ये धैर्येण हिम वानिव।“ 1-1-17
नारद जी ने श्री राम को गंभीरता में समुद्र के समान और धैर्यता में हिमालय के समान कहा है और धीर पुरुषों का लक्षण होता है कि कोई निंदा करें या स्तुति, वह कभी भी सत्य मार्ग से विचलित नहीं होते, अब तनिक विचार करिए, क्या श्री राम जी जैसे धैर्यवान पुरुष ऐसा अधीरतापूर्वक निर्णय लेंगे कि वे बिना सत्य बात पर विचार किये मात्र लोकापवाद के कारण सीता जी का परित्याग कर देंगे, कदापि नहीं, यह पूर्णतः अविश्वसनीय है।
- जब श्री राम वन में जाने के लिए प्रस्थान कर रहे होते है तब सीता जी भी उनके साथ चलने के लिए प्रार्थना करती है परन्तु श्री राम जी वनवास में कष्टों का वर्णन करते हुए उन्हें साथ ले चलने से मना कर देते है, फिर भी वे नहीं मानती है और अपना वन जाने का औचित्य बताती है, परन्तु श्री राम उन्हें वनवास के विचार से निवृत करने के लिए पुनः समझाते हुए कहते है कि,
“न देवी बत दुःखेन स्वर्गमप्यभिरोचये।“ 2-30-27
देवी ! तुम्हे दुःख देकर मुझे स्वर्ग का सुख मिलता हो तो मैं उसे भी नहीं लेना चाहूँगा । अपनी पत्नी को थोड़ा सा भी कष्ट न देने वाले श्री राम स्वप्न में भी परित्याग के बारे में नहीं विचार कर सकते ।
- अयोध्या काण्ड के सैंतीसवें सर्ग में वर्णन आता है जब कैकेयी सीता को वल्कल वस्त्र पहनने के लिए देती है और सीता को वो पहनना नहीं आता है तब वे अपनी पति से पूछती है कि नाथ ! इसे कैसे पहनते है ? तब उस जनसमुदाय के बीच श्री राम ने वो काम किया जो एक प्रेम करने वाला पति ही अपनी पत्नी के लिए कर सकता है,
“ तस्यास्तत् क्षिप्रमागत्य रामो धर्मभृताम् वरः ।
चीरम् बबन्ध सीतायाः कौशेयस्योपरि स्वयम् । ।“ 2-37-14
तब श्री राम उनके पास आकर स्वयं अपने हाथों से उनके रेशमी वस्त्र के ऊपर वल्कल वस्त्र बाँधने लगे। जो व्यक्ति अपनी पत्नी के सार्वजानिक अपमान को अपनी छाती पर झेलता हो वो अपनी पत्नी को किसी के कहने पर निर्वासित कर देगा , कैसी मूर्खतापूर्ण बात है?
4) जब रावण सीता का अपहरण कर लेता है तब अरण्यकाण्ड के पाँच सर्गों (60-65) में श्री राम के विलाप का करुणामय वर्णन है जिसमे वे वृक्षों और पशुओं से सीता का पता पूछते है और लक्ष्मण से कहते है कि,
“ सीतया रहितोऽहं वै न हि जीवामि लक्ष्मण। ।”3-61-6
लक्ष्मण ! सीता से रहित होकर मैं जीवित नहीं रह सकता ।
“न त्वहं तां विना सीता जीवन कथंचन । ।”3-62-15
मैं तो अब सीता के बिना किसी तरह जीवित नहीं रह सकता ।
“नाशयामि जगत सर्वं त्रेलोक्य सचराचरम । ।”3-64-71
मैं चराचर प्राणियों सहित समस्त त्रिलोकी का नाश कर डालूँगा ।
अपनी पत्नी सीता से अनन्य प्रेम करने वाले श्री राम के बारे में कोई कैसे कह सकता है कि उन्होंने लोकनिंदा के भय से सीता का परित्याग किया होगा ।
5) युद्धकाण्ड में जब अपने सतीत्व का प्रमाण देने के लिए सीता अग्नि में प्रवेश करती है तब अग्निदेव उन्हें अपनी गोद में लिए ऊपर आते है और श्री राम जी से कहते है कि सीता ने मन, वाणी, बद्धि और नेत्रों द्वारा भी आपके सिवा किसी और का आश्रय नहीं लिया तब श्री राम जो कहते है वो एक सौ अठारहवें सर्ग के बीसवें श्लोक में वर्णित है कि,
“अनन्य हृदयां भक्ताम मचत्तपरिवर्तिनीम् ।
अहमप्यवगच्छामि मैथिलीं जनकात्मजाम् । ।“6-118-15
यह बात मैं भी जानता हूँ कि सीता का ह्रदय सदा मुझ में ही लगा रहता है ।
“विशुद्धा त्रिषु लोकेषु मैथिली जनकात्मजा ।
न ही हातुमियं शक्या कीर्तिरात्मवता यथा । ।“6-118-20
मिथिलेशकुमारी जानकी तीनों लोकों में परम पवित्र हैं, जैसे मनस्वी पुरुष कीर्ति का त्याग नहीं कर सकता, उसी तरह मैं भी इन्हें नहीं छोड़ सकता ।
- महाभारत के वन पर्व के अध्याय 273 से 291 में जब मार्कंडेय ऋषि युधिष्ठिर को विस्तृत रामोपाख्यान सुनाते है तब उसमें भी सीता परित्याग का कहीं भी वर्णन नहीं है।
- प्राचीन पुराणों में भी जहाँ जहाँ रामकथा मिलती है वहाँ भी सीता के परित्याग का अंशमात्र भी संकेत नहीं किया गया है जैसे विष्णु पुराण, वायु पुराण, नृसिंह पुराण और हरिवंश पुराण।
अतः, इन सभी तथ्यों का अवलोकन करने से ज्ञात होता है कि सीता परित्याग की कथा श्री राम जी के बारे में अपयश फैलाने के उद्देश्य से और उनकी महिमा को धूमिल करने के उद्देश्य से जोड़ी गयी है जिससे आम जनमानस के मन में शंका उत्पन्न हो।